भारतीय संदर्भ में समावेशी विकास की अवधारणा कोई नई बात नहीं है। प्राचीन धर्मग्रंथों का अवलोकन करे तो उनमें भी सब लोगों को साथ लेकर चलने का भाव निहित है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ में इसी बात की पुष्टि की गई है। नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद विकास की यह अवधारणा नए रूप में उभरी क्योंकि उदारीकरण के दौरान वैश्विक

अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ जुड़ने का मौका मिला तथा यह धारणा देश एवं राज्यों की परिधि से बाहर निकलकर वैश्विक संदर्भ में अपनी महत्ता बनाए रखने में सफल रही।